
वैदिक वाङ्मय में राश्ट्रिय भावना
Author(s) -
Indresh Pathik
Publication year - 2016
Publication title -
dev sanskriti : interdisciplinary international journal (online)/dev sanskriti : interdisciplinary international journal
Language(s) - Hindi
Resource type - Journals
eISSN - 2582-4589
pISSN - 2279-0578
DOI - 10.36018/dsiij.v7i0.70
Subject(s) - environmental science
सामाजिक उत्कर्श एवं समाज में सुख-समुन्नति हेतु जन-जन में राश्ट्रिय भावना होना आवष्यक है; क्योंकि राश्ट्रिय भावना से मुनश्य की आत्मीयता का दायरा बढ़ता है, जिससे उसकी संकीर्ण स्वार्थ-परता पर अंकुष लगता है। फलतः अपराध, अविष्वास, वैर, विद्वेश सभी समाप्त हो जाते हैं और वह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के स्तर तक अपनी मान्यताओं को विस्तृत कर लेता है। वैदिक काल में ऐसा ही था, इसीलिए उस समय सर्वत्र सुख-षान्ति-समृद्धि के दर्षन होते थे। वैदिक काल में प्रत्येक मानव राश्ट्रिय भावना से ओत-प्रोत था। उस समय मनुश्य भौतिक प्रगति के साथ आत्मिक प्रगति को भी पर्याप्त महत्व देते थे। वस्तुतः वे समश्टि चिन्तन से ओत-प्रोत थे, इसी कारण वे राश्ट्रवादी थे। इस राश्ट्रभावना का मूल स्रोत वेद हैं। वेदों में प्रयुक्त राश्ट्र षब्द सम्पूर्ण भूमण्डल का प्रतिनिधित्व करता है। वैदिक वाङ्मय में राश्ट्रिय भावना को जानने के लिए राश्ट्र षब्द की व्युत्पत्ति जानना आवष्यक है। दीप्त्यर्थक राज् धातु से शकार संयुक्त होकर ‘श्ट्रन’ प्रत्यय जुड़कर निश्पन्न ‘राश्ट्र’ षब्द का अर्थ भूखण्ड, देष और जनपद होता है। उस देष की संस्कृति, सभ्यता, दर्षन, धर्म, तीर्थ, वन, पर्वत एवं नदियाँ आदि देष के अन्तर्गत ही स्वीकार किये जाते हैं। यद्यपि देष षब्द राश्ट्र का बोध कराता है, किन्तु देष और राश्ट्र के मूल अर्थ में कुछ वैभिन्य है। जहाँ गिरि, सागर, नदियों की भौतिक सीमा में आबद्ध भूखण्ड को देष कहते हैं, वहीं वह देष जब प्रषासनिक दृश्टि से भावना का द्योतक बनता है, उसमें सार्वभौमिकत्व, सार्वजनीनत्व एवं स्वातंत्र्य समाविश्ट हो जाता है, तब वही राश्ट्र कहा जाता है। चारों वेदों एवं अन्य वैदिक वाङ्मय में राश्ट्रिय भावना का पर्याप्त रूपेण दर्षन होता है। तत्कालीन मानव सम्पूर्ण पृथ्वी को अपनी माता तथा स्वयं को पृथ्वी का पुत्र मानता था, इसी विस्तृत चिन्तन के साथ व्यवहार करते हुए वह प्रत्येक प्राणी के साथ भाई-चारे की भावना से युक्त था। अतः उस समय सर्वत्र षान्ति विराजमान थी। आज के आपाधापी एवं संकीर्ण स्वार्थपरता के युग में वैदिक कालीन राश्ट्रिय भावना सर्वथा प्रासंगिक है। इसी भावना के अवधारण से मनुश्य सच्चे अर्थाें में मनुश्य बन सकता है, जिससे मानवोचित जीवन जीकर वह न केवल सृश्टि का मुकुट मणि बनकर सबका मार्गदर्षक बनेगा वरन् सम्पूर्ण धरा पर षान्ति की स्थापना में भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा।