
बौद्ध दर्शन में वर्णित साधना पद्धति
Author(s) -
. Nivedita
Publication year - 2015
Publication title -
dev sanskriti : interdisciplinary international journal (online)/dev sanskriti : interdisciplinary international journal
Language(s) - Hindi
Resource type - Journals
eISSN - 2582-4589
pISSN - 2279-0578
DOI - 10.36018/dsiij.v6i0.67
Subject(s) - computer science
साधना आत्मिक प्रगति का आधार है। साधना की तीन प्रणालियाँ मानी गई है- कर्म, ज्ञान और भक्ति। बुद्ध के अनुसार शरीर को दण्ड देने की अपेक्षा ज्ञान प्राप्ति से और ध्यान साधना के अभ्यास से निर्वाण प्राप्त हो सकता है। बौद्ध साधनाएँ ‘शील, प्रज्ञा और समाधि के रूप में ‘त्रिरत्न’ के नाम से भी जानी जाती हैं। बौद्ध साधनाभ्यास का आधार ‘शील’ है। क्योंकि बौद्ध साधना में शील सम्पन्न साधक ही समाधि का अधिकारी होता है। बौद्ध साधना ‘हीनयान’ व ‘महायान’ के रूप में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों को प्रदर्शित करती है। हीनयान केवल ‘निवृत्तिमार्ग’ है। उसकी सारी शिक्षा, समग्र साधना केवल एक आत्मा के निर्वाण को ही लक्ष्य बनाती है तथा महायान प्रवृत्तिमार्ग धर्म माना जाता है। महायान का मत है कि सभी मनुष्यों को उन्नति के योग्य बनाया जा सकता है। हीनयान ‘ज्ञान’ को प्रधानता देता है और महायान ‘भक्ति’ की विशेषताओं को स्वीकार करते हुए बुद्ध की मूर्ति-पूजा व अर्चना को स्थान देता है। महायान बौद्ध साधना में ‘शास्ता’ का ईश्वरीकरण कर दिया गया है। सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में चित्तवृत्तियों के संयमन की कठिनाईयों का वर्णन प्राप्त होता है। चित्तवृत्तियों के सम्यक् नियंत्रणों के अभाव में ‘अमृतपद निर्वाण’ को प्राप्त करना असम्भव है। बौद्ध आष्टांगिक मार्ग के अभ्यास द्वारा चित्तवृत्तियों के ऊपर नियंत्रण प्राप्त हो सकता है। जीवन को बुद्ध ने दुःखमय माना है, परन्तु शील के आचरण द्वारा नैतिक जीवन अपनाते हुए अवांछित दुःखों को उत्पन्न होने से रोका जा सकता है। साधनाएँ ही दुःख निरोध में सहायक होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति सामान्य नैतिक नियमों का पालन करने लगे तो वह स्वयं के जीवन को तो सुखमय बनाएगा, साथ ही साथ समस्त विश्व सुखमय हो जाएगा क्योंकि मनुष्यमात्र में देवत्व विद्यमान है जिसे साधना द्वारा परिष्कृत किया जा सकता है।