
पुराणों में भारतवर्ष की राष्ट्रीयता एवं भौगोलिक सीमाएं
Author(s) -
Bajrang Lal Atri
Publication year - 2014
Publication title -
dev sanskriti : interdisciplinary international journal (online)/dev sanskriti : interdisciplinary international journal
Language(s) - Hindi
Resource type - Journals
eISSN - 2582-4589
pISSN - 2279-0578
DOI - 10.36018/dsiij.v4i0.42
Subject(s) - computer science
भारत के अनेकों आधुनिक इतिहासकारों में यह भ्रम फैला हुआ है कि ब्रिटिश सरकार ने ही भारत को एक राष्ट्र के रूप में एकीकरण किया है तथा भारत: एक निर्माणाधीन राष्ट्र है। किन्तु पुराणों और अन्य संस्कृत ग्रन्थों में प्राचीनकाल से ही भारत राष्ट्र और इसकी राष्ट्रीयता का वर्णन किया गया है। विभिन्न पुराणों में न केवल भारतवर्ष नाम की व्याख्या ही की गई है बल्कि इसकी अस्मिता, सांस्कृतिक प्रभाव और भौगोलिक सीमाओं का भी वर्णन किया गया है। विभिन्न पुराणों मंे भुवनकोश अर्थात् प्राचीन विश्व की भौगोलिक स्थिति का वर्णन करते हुए भारतवर्ष की भोगौलिक सीमा, इसकी सांस्कृतिक विरासत, विभिन्न भाषाओं, परम्पराओं, प्रान्तरों वाले विशाल भूभाग का सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सामुदायिक राष्ट्र के रूप में वर्णन किया गया है। प्रस्तुत शोधलेख में पौराणिक प्रमाणों के आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास, इसके नामकरण, भौगोलिक स्थिति तथा भारतीय संस्कृति की प्राचीनता का वर्णन किया गया है। पुराणों में ही इस देश का नाम भारतवर्ष पहली बार प्राप्त होता है। पुराणों के भौगोलिक विवरणों के अनुसार भारतवर्ष जम्बूद्वीप के इलावृत्तवर्ष में स्थित मेरूपर्वत अर्थात् पामीर नाट के दक्षिण में बसा है और आज भी भारत अफगानिस्तान स्थित पामीर पर्वतमाला के दक्षिण में स्थित है। पुराणों में भारतवर्ष के जिन पर्वतों, नदियों, सरोवरों, तीर्थों तथा सागरों का वर्णन किया गया है वे आज भी भारतीय उप महाद्वीप में वर्तमान हैं। आधुनिक योरापीय विद्वानों और उनके शिष्य भारतीय इतिहासकारों ने पुराणों को पंडितों की गप्प बताया और प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में पुराणों एवं अन्य संस्कृत ग्रन्थों को ऐतिहासिक शोधकार्य के योग्य नहीं माना। विश्व के प्राचीन राष्ट्रों मिश्र, यूरोप, चीन, मध्यपूर्व के देशों का प्राचीन इतिहास उनके प्राचीन साहित्य और अन्य प्रमाणों के आधार पर लिखा गया है किन्तु भारत के इतिहास लेखन में भारतीय साहित्य को प्रमाण के योग्य नहीं माना जाता, यह आश्चर्य का विषय है। अतः भारत में इतिहास के क्षेत्र में संस्कृत वाङमय पर शोधकार्य अत्यन्त आवश्यक है। इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए यह शोधपत्र प्रस्तुत किया गया है।