
जैन दर्शन के दार्शनिक स्वरूप का एक अध्ययन
Author(s) -
ममता काण्डपाल
Publication year - 2017
Publication title -
scholarly research journal for interdisciplinary studies
Language(s) - Hindi
Resource type - Journals
eISSN - 2319-4766
pISSN - 2278-8808
DOI - 10.21922/srjis.v4i37.10823
Subject(s) - psychology
जैन दर्शन प्राचीन दर्शनों में से एक है। जैन शब्द की उत्पत्ति ‘जिन‘ शब्द से मानी जाती है, जिसका अर्थ है विजेता। विजेता से तात्पर्य यह है कि, व्यक्ति द्वारा अपनी कामनाओं एंव मन को जीत लिया हो अर्थात विजय प्राप्त कर ली हो। और वह व्यक्ति जन्म-मृत्यु के क्रम से मुक्त हो गया हो। ऐसा माना जाता है कि जैन दर्शन लगभग छठी शताब्दी ई0 पू0 भगवान महावीर स्वामी के द्वारा पुनराव्रतित हुआ। जिन्हें ‘वर्धमान‘ ‘वीर‘ ‘अतिवीर‘ और सन्मति भी कहा जाता है। जैन दर्शन की उत्पत्ति का कारण वेदों की प्रमाणिकता एवं कर्मकाण्ड की अधिकता को माना जाता है। जहां एक ओर वेदों में ईश्वर को सत्ता का सर्वोच्च स्वामी माना गया है वहीं दूसरी ओर जैन दर्शन में अहिंसा को महत्वपूर्ण मानते हुए तीर्थंकरों को ही भगवान का स्थान दिया गया है। तथा तीर्थंकरों द्वारा दिये गये उपदेशों का पालन करना ही नियमसंगत माना गया है। इन्हीं जिनों के उपदेशें को मानने वाले जैन तथा उनके धर्म के सिद्वान्त जैन दर्शन के रूप में प्रसिद्व हुए। जैन दर्शन मानवीय मूल्यों पर आधारित दर्शन है। जो नैतिकता को प्रमाणिकता के आधार पर अपनाने पर बल देता है। जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार जीव और कर्मों में से जब जीव सम्पूर्णतः अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त कर देता है तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। और इसके साथ ही व्यक्ति को जैन दर्शन में विदित मौलिक मान्यताओं के अनुसार पुरूषार्थ करना पड़ता है, जिसे जैन दर्शन में ‘सम्यक् पुरूषार्थ‘ कहते हैं। नास्तिक दर्शनों में सबसे प्रमुख दर्शन ‘जैन दर्शन‘ को माना गया है। जैन दर्शन को ‘आर्हत दर्शन‘ के नाम से भी जाना जाता है। जैन दर्शन के अन्र्तगत चैबीस तीर्थंकर हुए जिनमें ऋषभदेव को प्रथम तथा महावीर स्वामी को चैबीसवां तीर्थंकर माना जाता है।